मेरी प्यारी बेटी अनमना तुम इस कविता कि बूँद की तरह एक संघर्ष पूर्ण दौर से गुजर रही हों ...ये कविता मेरी नहीं है , महाकवि हरिऔध की है ॥ क्या यह संयोग है कि उन्होंने अपनी बूँद को भी अनमनी कहा है...
"ज्यों निकल कर बादलों की गोद सेथी
अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ीसोचने फिर-
फिर यही जी में लगी,आह !
क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर । "
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